दिल्ली के मैदानों से एक परिंदा उड़ते-उड़ते,
जा पहुंचा कसोल, पार्वती की गोद में,
खुला आसमान था वहाँ और फूलों से भरीं थीं घाटियाँ,
रात को घरों में टिमटिमाती थी बातियाँ,
तपते थे संत वहाँ और घूमते थे सन्यासी,
भटकते थे बंजारे वहाँ और मिलते थे बाबाजी,
थोड़े दिन गुज़ारे उस परिंदे ने वहाँ,
पर फिर लौट गया वहीं उसका घर था जहाँ,
पर मन ना लगता था अपने घर में उसका,
बार-बार याद आता था वो पहाड़ी रस्ता,
तो एक दिन सब छोड़ के वो निकल पड़ा कसोल के लिए,
उस दिव्य वातावरण और सम्मोहिक महौल के लिए,
इस बार वो वहीं का होने चला था,
उस मिट्टी को माथे पे मलने चला था,
और अंतर-ज्योति में रमने चला था,
वो बरसों घूमा वहाँ पर्वतों से लेके नदियों में,
उसने उतना जहां देखा जो कोई देखता है सदियों
में,
कोई पूछता उससे ज़िंदगी का सार क्या है,
कोई पूछता उससे ऊपरवाले का आधार क्या है,
तो कोई पूछता धन बटोरने का जुगाड़ क्या है,
पर वो चलता रहता बेसुध अपनी मौज में,
वो बढ़ता रहता अपनी धुन में, अपने मौन में,
वो तपता रहता हर मौसम में, हर आलम में,
और वो अंत में कामयाब हुआ अपनी खोज में...
सुना है मैंने वादियों से,
और हिमालय की ऊंचाइयों से,
और पार्वती की गहराईयों से,
के मिलता है मोक्ष उन्हें,
जो करते हैं तप कसोल के सरग़ोश में,
दिल्ली के मैदानों से एक परिंदा उड़ते-उड़ते,
जा पहुंचा कसोल, पार्वती की गोद में।
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