Thursday, September 29, 2016

आमीन



हमें क्या अज़ीज़ है?
उस वृक्ष को देखो ज़रा,
किसी सोच में उलझा पड़ा,
हर पात उसका बिखर गया,
तूफान में उजड़ गया,
इस थपेड़ों को सहने की, ऐसे थपेड़ों को सहने की,
ए खुदा दे शक्ति असीम,
आमीन ।

वो जो बंजर पड़ी है ज़मीन,
थी वो भी कभी एक कल्पना-सी नवीन,
सजदा जो करती थी बूंदों का,
वो एक छींट के लिए तरस गयी,
बद्रा जहाँ बरसती थी, वो धरा, ज्वाला-मुखी-सी तप गयी,
आशा है, फिर बसंत और बहार लौटें,
सूनी पड़ी उस गोद में फिर क्यारियाँ हज़ार लोटें,
फिर सजे वो दुल्हन की तरह, उतनी ही लगे हसीन,
आमीन ।

आसूँ भरी आँखों से पूछो,
घुट रही साँसों से पूछो,
चीख जो मध्धम पड़ी,
थम रही आवाज़ों से पूछो,
रो रही उस माँ से पूछो,
जिसके दिल में बस ये सदा है,
कि ए मालिक मेरे, मुझे काट कर,
लेने दे संतानों को मेरी मेरे ये टुकड़े छीन,
आमीन ।

अपने अज़ीज़ की हर रज़ा के लिए,
उसकी सुरक्षा के लिए,
मोह और आक्रोश का हर तर्क हो तर्कहीन,
ए खुदा दुआ है तुझसे,
एक रहे राम और रहीम,
आमीन ।





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