Wednesday, September 28, 2016

धर्म

एक पूर्व सैनिक, सैन्य-बल से अपनी कार्यमुक्ति के बाद, अशांति से ग्रस्त है। वह ख़ुद से पूछ रहा है के उसे क्या अधिकार था किसी और इंसान की जान लेने का, विरोधी सिपाहियों का कत्ल करने का, ज़िंदगियों को खत्म करने का। हर सैनिक के मन में कभी-न-कभी उठा ये सवाल, इस कविता का आधार है।


सरज़मीन की इबादत,
ज़हनसीब है शाहादत,
आयत की तरह जो पाक है,
मज़बूत जैसे सलाख है,
अश्कों की तरह जो नर्म है,
साँसों की तरह जो गर्म है,
मेरा कर्म ही, मेरा धर्म है,
मेरा कर्म ही, मेरा धर्म है।

ज़िंदगी नवाज़िश है ख़ुदा की,
तामील है ये उस रज़ा की,
जिसको पाने के लिए स्वयं प्रकृति भी अमादा थी,
इस क़दर अनमोल ज़िंदगी के सीने को भेद कर,
उसे मौत की नींद सुलाने में ना तू परहेज़ कर,
मेरा धर्म कहता है मुझे,
इंसान पर तू वार कर, इंसान को ही मार कर,
इंसानियत से प्यार कर, इंसानियत से प्यार कर,
मासूम जैसे मुस्कराहट,
शोलों की तरह जो गर्म है,
ये मेरा धर्म है, ये ही मेरा धर्म है।

दूर है वो जो खड़ा,
उस अजनबी की पहचान बता ज़रा,
उसके नापाक जिस्म ने मेरे वतन का स्पर्श किया,
हर ऐसी नज़र के अंश तक, को हमारे क्रोध ने विध्वंस किया,
मेरी नज़र में वो ज़िंदगी नहीं, एक सिपाही का अंत था,
मैं मानता हूँ उनके लिए मेरा दिल न मर्म था,

पर दुश्मन को मौत देना ही मेरा धर्म था।

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