Thursday, September 29, 2016

अंतरा

अंतरा


बस वहीं से दो कदम की नज़र पे,
नीम के पत्तों से अपना ज़ख्म ढके आखरी साँसे भरते घर में,
एक याद सिरहाने के तले सम्हाल रखी थी,
एक किस्सा कपड़ों के बीच महफूस रखा था,
उस शाम जिस आँगन की चौखट लांगी थी मैंने,
उसके दरवाजे के पीछे एक खुशहाल लम्हा मेरी उँगली पकड़ मुझे रोक रहा था,
बस ऐसी ही कुछ चीज़ें हाथों में समेट के लानी हैं,
कुछ बुझे दियों पे उड़ेलनी हैं,
कुछ सूने आलों पे सजानी हैं,
पर डर लगता है ये के जो मैं घर में जाऊँ तो आँसुओं के बेड़ियाँ मुझे जकड़ ना लें,
ग़मगीन साँसों की ठंडी आहें मेरे साये को पकड़ न लें,
ठहरे पानी में अब भी जमी कहीं अधूरी बातों की काई ना हो,
चौंधियाती रोशनी में अब भी औझल कहीं बिखरे सपनों के तबाही ना हो,
मेरे ज़हन ने शायद अब तक उनकी खुशबू भुलाई ना हो,
हाँ, ऐसी सारी ही चीज़ें गठरी में बांध के आनी हैं,
कुछ राख़ या धुआँ करनी हैं,
कुछ कफ़्न पहना के दबानी हैं,
हाँ, आगाज़ यहीं से हुआ था मेरा और यहीं अंजाम होगा,
अंतरे के इस मोड़ पे खड़ी सोचती हूँ,
अंतरे के इस मोड़ पे खड़ी सोचती हूँ,
के क्या पाया है और क्या पाऊँगी आगे इस डगर में?

बस वहीं से दो कदम की नज़र पे...

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