Thursday, September 29, 2016

विदाई


यह कविता हर उस विदाई के उपलक्ष पर लिखी गयी है जो हम ज़िंदगी में अपने प्रियजनों से लेते हैं, चाहे वो स्कूल से हो, कॉलेज से, नौकरी से या खुद ज़िंदगी से ।

इस समंदर के गुज़र,
माना न पहुंचे अपनी नज़र,
पर इन गुज़रते क्षणों को गर हम अपनी पल्कों पे संजोएँ,
फिर यूँ ही, खिलते रहेंगे गुलिस्ताँ, सजती रहेंगी महफ़िलें,
चलते रहेंगे कारवां, बनते रहेंगे काफ़िले, आती रहेंगी मंज़िलें,
सिर्फ हमें चलना है, मन में साहस, दिल में दृढ़ता और आँखों में आशा की जोत लिए ।

शायद, अब कभी ज़िंदगी में मुलाक़ात हो न हो,
इस राह कर हर मोड़, खुशियों की सौगात हो न हो,
ये माना, के हर क़दम पर ज़िंदगी एक इम्तहान होगी,
तभी तो, यहाँ जो हमनें सीखा, जो पाया,
उससे हर मुश्किल को जीत लेने में ही हमारी शान होगी,
कुछ धोखे भी होंगे और कुछ छल भी मिलेंगे,
क्योंकि दुनिया में बहुत मिल जाते हैं, झूठ बोलकर दिल लुभाने वाले,
पर ऐसे बहुत कम हैं, जो हमारे भले के लिए हमसे सच बोलते हैं,
वो ही हैं हमारी ज़िंदगी बनाने वाले ।
ये आशा है मेरी, के आप ज़िंदगी में आगे बढ़ें, उन्नति करें,
और कभी भी कुछ अप्रिय हो, तो ये ज्ञान, ये तहज़ीब, ये सम्मान,
जो आपको इस विध्यालय ने दिया है, इसे याद करें,
और ये वादा है मेरा,
के आप अपनी और दूसरों की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे,
क्योंकि हम वो पौधा नहीं जिसे पतझड़ सूखा दे,
और जो हमें हिला दे न कोई ऐसा बारूद है,
क्यों, क्योंकि हमारी नींव मज़बूत है ।

और अंत में, आपसे ये ही कहना है,
कि इस साथ में, आप सबकी होंगी कुछ मीठी तो कुछ खट्टी यादें,
पर आज, इन रेत से लम्हों को पानी समझ मुठ्ठी में समेट लो,
और आगे फिर कभी जब यादों कि ये गठरी खुलेगी,
तो ये दावा है मेरा, के पानी की जगह इस सीप में मोती मिलेंगे,
जिनकी रोशनी के मुक़ाबले में, हर ग़म की रात,
कोई भी हो अप्रिय बात,
चाहे जैसी भी हो कड़वी याद,
धीमी पड़ेगी, चाँदनी से धुलती दिखेगी ।  




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