एक अफ़ग़ानी शरणार्थी अपने एक साल के बेटे के साथ पाकिस्तान सीमा के पास बसे एक शरणार्थी शिविर में रह रहा है। सन् २००१ में शुरू हुई अफ़ग़ान की लड़ाई ने उसके जैसे कई अफ़ग़ानी नागरिकों को बेघर करके, ऐसे शिवरों में रहने पर मजबूर कर दिया है, जहाँ उन्हें रहने और खाने को तो मिलता है, पर उनकी आज़ादी छिन जाती है। उसे इस बात का यकीन भी है के आने वाले कई सालों तक उसही की तरह उसके बेटे को भी इसी दहशत भरी ज़िंदगी का सामना करना पड़ेगा। ये ख़याल उसे सोचने पर मजबूर कर रहा है, के क्या ये ज़रूरी है के वो अपने बेटे को ये नर्क जैसी ज़िंदगी दे, क्यों ना वो उसे मार कर इस संघर्ष से आज़ाद कर दे, क्यों ना वो उसे ख़ुदा के पाक आग़ोश में भेज दे?
भीगी पलकों पे बिछीं हैं बिखरे सपनों की अर्थियाँ,
कोसो के फासले हैं, जिस्म-और-रूह के दरमियाँ,
किसी सूखे पत्ते की करवट पर जैसे ठहर गयी हो
ज़िंदगी,
धुंध की आँखों में ताकती, ढूँढती है शबनमी खुशी,
तब से उजालों की तलब है, तब से ये ज़िंदगी बेसबब है,
जब से आसमान में हैं सजी हुईं कमसिन अशर्फियाँ।
उड़ते पंछियों के परों पर ऐसे बाँध रखी हैं बर्फियाँ,
सूखती हुई रात को जैसे घेरे खड़ी हों बदलियाँ,
नज़्म-सी मासूम एक नर्म लहर ने कहा,
जिस्म-ए-ज़र्रा बक्शा नहीं क्यों ना मुझे ए मेरे
ख़ुदा?
माना वो साँसो की धूप-सा, न है उसका आशियाँ,
पर उन बेपनह ज़र्रों की उस आवारगी पे मरहबा,
बेज़ार, बेदार, बेनवा-सी बन्दिशों में पनपती हैं,
मुजरिम अशर्फियाँ ।
पानी की शोख बूंदों से लिपटा है सिलवटों का
काफ़िला,
माथे पे बैठी हुई शिकन को गर सौंप दूँ मैं
आशियाँ,
उन महकश आँखों पे फिर सोऐंगी ऐसे नर्मियाँ,
जाड़ों की सौंधी हवा में जैसे तैरती हों
गर्मियाँ,
इसे मार दूँगा मैं अभी, इसे मार दूँगा मैं अभी ।
इसे मार मत, इसे मार मत,
वो दामन ही क्या, हैं जिसमें न उगती धारियाँ,
हर शिकन के उपरांत, हैं खिलती तबस्सुम की क्यारियाँ,
इसे मार मत, इसे मार मत,
इसे मार दूंगा मैं अभी, इसे ज़िंदा रहने का हक़ नहीं,
इसे मार मत, इसने ज़िंदगी न महसूस की,
न ली जाम-ए-शब से महकशी,
इसे मार मत, इसे मार मत,
इसे ज़िंदा रहने के हक़ नहीं, इसे मार दूंगा मैं अभी,
इसे मार मत, इसे मार मत, इसे मार दूंगा मैं अभी, इसे मार मत...
है वहाँ की खामोश फिज़ा में गूँजती अब तक ये सदा,
के ख़ुदा के फैसलों के आगे कहाँ चलती हैं अपनी
मरज़ियाँ,
फर्श पे औंधे पड़ी हैं, खून सूँगती अशर्फियाँ ।
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