Wednesday, September 28, 2016

शेरवानी

इस्लाम सिखाता है के केवल अल्लाह ही एक ख़ुदा हैं और कोई नहीं; फिर तालिबान में युवकों को धर्म के नाम पे अपने समूह के सरदार को ख़ुदा मानने और उसके कहे पे मर-मिट जाने की शिक्षा दिये जाना क्या गलत नहीं? ऐसे ही कई सवाल एक सतरह वर्षिए अफगानी लड़के के मन में उठ रहे थे पर बाग़ी बनने के बाद इन सवालों की या किसी आम युवक की तरह अपनी आने वाली ज़िंदगी के सपने सँजोने की, उसके दिल में कोई जगह ही ना थी। ऐसा पत्थर-दिल बनना उसके प्रशिक्षण ने उसे सिखाया था। पर इस युवक के मन में अब भी एक ख्वाइश ज़िंदा थी और वो यह की वह अपनी आपा का निकाह एक अच्छी जगह करना चाहता था और उस खुशगवार मौके पे अपनी शेरवानी पहनना चाहता था। इस मासूम सपने की कहानी ये कविता बयाँ करती है ।


ओस की बूँदों पर रेंगती हुई तपन,
कितने नाज़ों से पाले मेरा अहम का हो रहा दमन,
रात-दिन बेहाल ख्वाइशें हैं फर्श पर बिछीं हुईं,
रौंदतें कदमों से दबतीं, मासूम कितनी सहमी हुईं,
पर तमस की गहराईयों में कहीं,
नमी में कैद साँस लेती परछाईयों में कहीं,
एक मंज़र नूरानी,
मेरी शेरवानी, मेरी शेरवानी।

सरज़मीं बनी आफ़रीन,
है शबनम संवर ज़ेवर बनी,
पर तसव्वुर में कहीं, कोई फूल महका नहीं,
ला इलाहा इल अल्लाह,
मुहम्मदुर रसूल अल्लाह,
फिर आयतों के दरमियाँ,
हैं कैसे ये काफिर के निशां,
जब मजीद सजदों का होता है सूफी अंदाज़े बयाँ,
फिर क्यों नहीं मिलतीं हैं ताबीरों में इतनी नर्मियाँ,
रोशनी से जग़मगा उठता है सारा आशियाँ,
होके बेबाक जब जलती है एक क्षमा,
गर ना नवाज़ो इस क्षमा को साँस लेने की जगह,
छोड़ जाती हर तरफ, हर दिशा, धुआँ-धुआँ।
नफरत के इस खेल में प्यार की एक निशानी,
मेरी शेरवानी, मेरी शेरवानी।

जब मखमली आसूओं पे चलता ज़िंदगी का कारवाँ,
होती राज़दाँ मेरे मन की, ये आँखें, ये भीगा आईना,
समेटे हुए इस जहान को मेरा मन जब होता खुशनुमा,
पौधे जैसा भीगी आँखों में उगता मन में छुपा था जो एक सपना, एक सपना,
के अपनी आपा के निकाह पे पहनूँगा अपनी मैं शेरवानी,
अपनी आपा के सदके कुर्बान दूँ ये ज़िंदगानी, ये ज़िंदगानी।

और आज, मेरे कंधे पे सर रख के रो रही है आपा मेरी,
इस पत्थर-दिल की वो जी थी बस एक, वो भी तमन्ना रह गयी,
के काश अपनी आपा के निकाह पे पहनता मैं अपनी शेरवानी,

मेरी शेरवानी, मेरी शेरवानी।

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