Thursday, September 29, 2016

मेट्रो की एक कहानी

मेट्रो की एक कहानी


हल्की-हल्की हवा से उसके बाल उड़ रहे थे,
उसके पलकों के झपकने से दिल के टूटे तार जुड़ रहे थे,
मेट्रो के प्लैटफ़ार्म पे उसपे नज़र पड़ी थी,
दो मिनट में ट्रेन ट्रैक पे होगी बता रही स्टेशन की घड़ी थी,
धीरे-धीरे वो लेडीज़ कोच की तरफ़ बढ़ने लगी,
गाड़ी का प्रथम कोच केवल महिलायों के लिए आरक्षित है”, ये घोषणा लाउडस्पीकर पे बजने लगी,
पर मैंने ज़माने से न डरते हुए उसका पीछा किया,
मेट्रो के एक हट्टे-कट्टे गार्ड ने पर मुझे रोक लिया,
तो फिर करीबन दस फुट की दूरी से मैं उसे देखता रहा,
मीठे, नमकीन और मसालेदार ख्वाब मैं ख़यालों के पुलाव में फेंकता रहा,
पर इस सबका कुछ फायदा नहीं जब तक मैं ख़ुद ना कुछ कर गुज़रूँ,
लोगों की लाइनों को तोड़ के, मैं जा के न उसका हाथ पकड़ूँ,
और फिर एक घुटने पे झुक के मैं उसे ये ना कह दूँ,
“के मरते तो तुझपे बहुत होंगे, क्यों ना मैं तुझसे प्यार कर लूँ?”
ट्रेन के हॉर्न का शोर फिर कानों में मेरे गूंजने लगा,
उसे कभी ना फिर देख पाने का डर, मेरे ज़हन को जकड़ने लगा,
मैं उसकी तरफ़ बढ़ने लगा, जो होगा वो होगा सोच के,
मेट्रो की भीड़ उमड़ने को तैयार थी, दरवाज़े तो खुलें उस कोच के!
उसका कंधा थपथपाऊँ या हाथ थामऊँ, सोच रहा था मैं दांतों तले उँगलियाँ दबोच के,
पर ख़ुदा को शायद कुछ और ही मंजूर था,
मेट्रो की भीड़ पे उस दिन जाने क्या सुरूर था,
वो इधर से निकले, वो उधर से भागे,
वो मेरी साइड में थे, मेरे पीछे थे और थे मेरे आगे,
और थोड़ी देर में वो मेरे ऊपर से टापने लगे,
उनके जूतों की गंध से मेरे होश अपना रास्ता नापने लगे,
और उसी के साथ मेरी मोहब्बत की शुरुआत से पहले ही उसका अंत हो गया,
मेरी आँखों के सामने अंधेरा अनंत हो गया,
पर फिर ठंडे पानी की कुछ छीटें मेरी आँखों पे पड़ीं,
और गालों पे गेसूओं की सहलाहट से मेरी नव्स फिर बढ़ने लगी,
अनगिनत गुलाबों से भरे किसी बाग़ में जितनी खुशबू होगी उतनी महक मेरे शरीर को छूने लगी,
और फिर एक नर्म-सी, शहद में घुली आवाज़ ने मुझे पुकारा,
कहा आप ठीक तो हैं, क्या उठने के लिए चाहिए सहारा?”
उसके बाद से एक मकसद मिल गया मुझे इस बेवजह के जीवन में,
उसके बाद से एक मकसद मिल गया मुझे इस बेवजह के जीवन में,
मेरे जैसे आशिकों के लिए ऐसी ही कई और मेट्रो बनाएँ,

मैं बिनती करता हूँ माननीय ई. श्रीधरन से ।

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