Monday, September 26, 2016

टिक्कीवाला


काले तवे से हल्का-हल्का धुआं उमड़ रहा था,
ज़रा खुरेचो तो उसका थोड़ा-थोड़ा लोहा उखड़ रहा था,
भूरी-भूरी सी ब्रैड तवे के साइड में सिक रही थी,
और बीच में गरम-गरम तेल की छीटें उछल रहीं थी,
थोड़ा और गरम होने दो भईया ने मुझसे कहा था,
फिर इसे डालूँगा टिक्की की तरफ इशारा किया था,
पर मुँह में मेरे अभी से पानी भर रहा था,
आँखें चौड़ी हो गईं थीं, हाथों पे काबू ना रहा था,
गरम तेल की बूंदें जब तवे से बाहर छलांगें लगाने लगीं,
तब टिक्कीवाले की नज़र आवारा टिक्कीयों पे जा के लगी,
उसने उन परिंदों को हाथों के जाल में झपटा,
थोड़ा दबाया, थोड़ा घुमाया, बना दिया गोल को चपटा,
फिर उन टिक्कीयों को उसने तवे की ढलान पे पलटा,
चिमटे से उनकी करवट बदली और कर दिया उनको चलता,
सारी की सारी वो झुंड बना कर तेल से जा के लिपट पड़ीं,
कैरम-बोर्ड की गीटीयों की तरह एक दूसरे से चिपट पड़ीं,
बाहर निकाला तो वों बीच से पोली, कौनों से करारी थीं,
ये टिक्कीयाँ नहीं, जन्नत पाने की छोटी-छोटी सवारी थीं,
फिर ब्रैड के सफ़ेद जोड़े में उन्हें टिक्कीवाले ने सजाया,
हरी और लाल चटनी का गलाबंद और धनिये का हार भी पहनाया,
उन बहनों को फिर उसने चाकू की मदद से जुदाई दी,
टिक्कीवाले के ठेले से उन दुल्हनों ने पत्ते की कटोरीयों में विदाई ली ।

और आज जब इतने सालों बाद मैं अपने नए घर से पुराने मकान आया,
और उस टिक्कीवाले को मैंने न नुक्कड़ पे पाया,
तो पुरानी यादों का कारवां उमड़ के ज़हन में आया,
गिल्ली से घरों के काँच तोड़ना,
कंचों से दोस्तों के कंचें फोड़ना,
पतंगों से घरों की ऊंचाई नापना,
गलियों में लंगड़ी टाँग तापना,
और फिर थक जाने के बाद भूक लगी तो,
घर में इधर-उधर पड़े सिक्के समेट के टिक्कीवाले के पास भागना….

इन सभी यादों में सबसे ज़्यादा उस टिक्कीवाले की याद आती है,
इन सभी यादों में सबसे ज़्यादा उस टिक्कीवाले की याद आती है,
क्योंकि दादी की लोरियों की तरह ही उसकी टिक्कीयाँ भी मुझे चैन की नींद सुलाती हैं ।  

   

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